यस्मान्नोद्विजते लोको, लोकान्नोद्विजते च यः।
हर्षामर्षभयोद्वेगै:(र्), मुक्तो यः(स्) स च मे प्रियः॥12.15॥
He by whom the world is not afflicted and whom the world cannot afflict, he who is free from joy and anger, fear and anxiety— he is dear to Me.
भावार्थ : जिससे कोई भी जीव उद्वेग को प्राप्त नहीं होता और जो स्वयं भी किसी जीव से उद्वेग को प्राप्त नहीं होता तथा जो हर्ष, अमर्ष (दूसरे की उन्नति को देखकर संताप होने का नाम 'अमर्ष' है), भय और उद्वेगादि से रहित है वह भक्त मुझको प्रिय है