ये त्वक्षरमनिर्देश्यम्, अव्यक्तं(म्) पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं(ञ्) च, कूटस्थमचलं(न्) ध्रुवम्॥12.3॥
सन्नियम्येन्द्रियग्रामं(म्), सर्वत्र समबुद्धयः।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव, सर्वभूतहिते रताः॥12.4॥
Those who, having restrained well all the senses, even-minded everywhere, rejoicing in the welfare of all beings, meditate on the indefinable, eternal, all-pervading, and Imperishable Brahman – they attain Me alone.
भावार्थ : परन्तु जो पुरुष इन्द्रियों के समुदाय को भली प्रकार वश में करके मन-बुद्धि से परे, सर्वव्यापी, अकथनीय स्वरूप और सदा एकरस रहने वाले, नित्य, अचल, निराकार, अविनाशी, सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को निरन्तर एकीभाव से ध्यान करते हुए भजते हैं, वे सम्पूर्ण भूतों के हित में रत और सबमें समान भाववाले योगी मुझको ही प्राप्त होते हैं