निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः(स्) सुखदुःखसञ्ज्ञै:(र्) गच्छन्त्यमूढाः(फ्) पदमव्ययं(न्) तत्॥15.5॥
Free from pride and delusion, having conquered the evil of attachment, ever devoted to the Supreme Self, with desires completely stilled, liberated from the pairs of opposites known as pleasure and pain, the undeluded reach that Immutable Goal.
भावार्थ : जिनका मान और मोह नष्ट हो गया है, जिन्होंने आसक्ति रूप दोष को जीत लिया है, जिनकी परमात्मा के स्वरूप में नित्य स्थिति है और जिनकी कामनाएँ पूर्ण रूप से नष्ट हो गई हैं- वे सुख-दुःख नामक द्वन्द्वों से विमुक्त ज्ञानीजन उस अविनाशी परम पद को प्राप्त होते हैं॥5॥